क्यों पनपने लगती है
वो बेल, हमारे भीतर
ले कोहरे की छुहन ।
काटते रहे हर बार
टुकड़ा टुकड़ा करते बेल
जो पनपती हमारे भीतर
लिजलिजी केंचुए सी,
जिददी आक्टोपस सी,
गिरगट से रंग बदलती,
बढ़ती बे-खौफ हर पल
कभी कभी मुस्कराती
पूछती अनेक सवाल
और
डाल कोहरे की चादर
जकड़ती पूरा अस्तित्व
वो बेल जो पनपती हमारे भीतर।
सीमा समृति
वो बेल, हमारे भीतर
ले कोहरे की छुहन ।
काटते रहे हर बार
टुकड़ा टुकड़ा करते बेल
जो पनपती हमारे भीतर
लिजलिजी केंचुए सी,
जिददी आक्टोपस सी,
गिरगट से रंग बदलती,
बढ़ती बे-खौफ हर पल
कभी कभी मुस्कराती
पूछती अनेक सवाल
और
डाल कोहरे की चादर
जकड़ती पूरा अस्तित्व
वो बेल जो पनपती हमारे भीतर।
सीमा समृति
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