Sunday, January 5, 2014

कल्‍पना या यथार्थ


उडेल सको अपनी थ‍कान,मुस्कान
 
चिढ़ और गुस्‍सा
 
चिल्‍लाया जा सके
 
झल्‍लाया जा सके
 शब्‍द बोझ न हो
 
जहाँ सोच पर बंधन न हो
 
दर्द को दर्द की ही तरह बाँटा जा सके
 
खुशी को जिया जा सके
 
प्रश्‍नों के तीर न हों
 
डर न हो रिश्‍ते की टूटन का
 
भय न हो खो देने का
 
छूट हो कुछ भी कहने की-
मन में जो भी धमक दे 
 
जहाँ लम्‍हें शर्तो पर न जिए जाएँ
 
माँगे हो
न पूरी होने पर, अनजाना डर न हो
आदर सम्‍मान केवल शब्‍दों की चाशनी में लिपटे न हों,
रिश्‍ता बन सके ,आईना जिन्‍दगी का
पाना चाहता है हर शख़्स यह खूबसूरत रिश्‍ता
दे पाना, यह खूबसूरती
आज भी है, प्रश्‍नों की सलीब पर ।
सहज साहित्‍य पर प्रकाशित मेरी कविता



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