मैं कोई गुजारा लम्हा नहीं
जिसे भुलाने की कोशिश हो
मैं इक सच हूँ
मैं इक यथार्थ हूँ
कोई सपना नहीं
जो सुबह हो धुँधला जाऊँ
सच जीया जाता है
यथार्थ से जूझना पड़ता है
इंसान हो
खुद ही जान जाओगे
दर्द कहा नहीं जाता
सहा जाता है
जिन्दगी बहुत रंगीन ना सही
रंगहीन ही सही,
उसमें वक्त के बेरहम रंग ही सही
उसे ‘संघर्ष’ के कैन्वस पर उतार
इक रूप तो दिया जा सकता है।
सीमा स्मृति
13.12.12
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.