Wednesday, October 16, 2013

फ़ासले

कुछ यथार्थ तुम्‍हारे हैं
कुछ यथार्थ मेरे
फिर  कुछ हैं ----
हमारे यथार्थ में ।
तुम चलते रेगिस्‍तान में
मेरे कदम सागर की रेत पर
मिट गए कदमों के निशान
सफर अब भी हैं, अंतहीन
तुम खामोश
शब्‍द मेरे भी हैं लापता
फिर कितनी खामोश बातें करते हम-तुम
दर्द तुम्‍हारे सीने में,
टीसते हैं मेरे भी कितने ख्‍वाब
हम दरिया के दो किनारे ही सही
अस्तित्व के धरातल पर
क्‍या ये यथार्थ कम है
चलते चले जाने को ।


सीमा स्‍मृति

2 comments:

  1. फ़ासलों के यथार्थ का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है आपने, सीमा जी। आपने सही लिखा कि प्रतिकूल परिस्थितयों के बावजूद भी चलते जाने का नाम ही “जिंदगी” है। इस दिल को छू जाने वाली कविता लिखने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।

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