Monday, October 28, 2013

निज अस्तित्‍व


परिस्थितियों की कठपुतली आवाज देती है
जब कभी  निज अस्तित्‍व की
केवल प्रतिघ्‍वनित होकर रह जाती है वो
चारो ओर फैले अहम् के गुबार में
ये जानते हुए  निश्चित है रह शक्‍स की जीवनधारा,
किसी अनिश्चित्‍ता की डोर से
नहीं टूट पाता एक चक्रव्‍यूह
धिर जाती है धारा इक नये व्‍यूह में
कहां मिलेगा अस्तित्‍व का धरातल
अन्‍जान है इससे फिर भी
डाल वो कवच संघर्षो का 
उतर पडती है अनुभूति की गहराई में 
यथार्थ की तपन में झुलसने लगा कवच 
धुटकर कर रह जाती है वो आवाज 
उस गुबार में 
जिसमें धिरा  उलझा  जूझता 

हर व्‍यक्तित्‍व तलाशता है निज अस्तित्‍व।

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