परिस्थितियों
की कठपुतली आवाज देती है
जब
कभी निज अस्तित्व की
केवल
प्रतिघ्वनित होकर रह जाती है वो
चारो
ओर फैले अहम् के गुबार में
ये
जानते हुए निश्चित है रह शक्स
की जीवनधारा,
किसी
अनिश्चित्ता की डोर से
नहीं
टूट पाता एक चक्रव्यूह
धिर
जाती है धारा इक नये व्यूह में
कहां
मिलेगा अस्तित्व का धरातल
अन्जान
है इससे फिर भी
डाल वो कवच संघर्षो का
उतर पडती है अनुभूति की गहराई में
यथार्थ की तपन में झुलसने लगा कवच
धुटकर कर रह जाती है वो आवाज
उस गुबार में
जिसमें धिरा उलझा जूझता
हर व्यक्तित्व तलाशता है निज अस्तित्व।
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