हर क्षण होठों पर सिमटी
मुस्कराहट के पीछे
क्या आपने देखी है-
बनावट की मोटी परत
क्या महसूस की है, चुभती कड़वाहट
दर्द की एक सिहरन
झड़ती पपडि़याँ ईर्ष्या की
क्या पढ़ पाए हैं आप
दबे इक डर में
सोखती जीवन की महक को
जरा सुनिए
मुस्कराहट -भरे शब्ब्दों में
बेसुध अहं की गूँज ।
देखना चाहते हैं
जानना चाहते हैं
इस मुस्कराहट के रहस्य को
ले आइये आईना
और
सुनिये, क्या कहता है
‘खुदा’ होने का दावा करता इंसान
भूल इंसानियत की राह
अहम् के गुबार में लिप्त
बेपरवाह! बेखबर! बेरहम!
देख जिसे आईना भी मुस्कराता है
और
चटक कर बिखर जाता है।
सहज साहित्य पर दिनांक १०.१०.२०१३ को प्रकाशित मेरी कविता
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