Wednesday, October 30, 2013

ओस सा अस्तित्‍व

ओस की बूंद-सा अस्तित्‍व
सूर्य किरण में सिमटता
चन्‍द्र किरण से खिलता
ये अस्तित्‍व के धरातल पर
ओस-सा अस्तित्‍व
      चाहा बहुत
ना सूर्य का अपनतत्‍व मिला
ना ही चन्‍द्र से जुड़ा कोई नाता
ओस का संधर्ष है निरन्‍तर
पर क्षणिक है जीवन से नाता।

Monday, October 28, 2013

निज अस्तित्‍व


परिस्थितियों की कठपुतली आवाज देती है
जब कभी  निज अस्तित्‍व की
केवल प्रतिघ्‍वनित होकर रह जाती है वो
चारो ओर फैले अहम् के गुबार में
ये जानते हुए  निश्चित है रह शक्‍स की जीवनधारा,
किसी अनिश्चित्‍ता की डोर से
नहीं टूट पाता एक चक्रव्‍यूह
धिर जाती है धारा इक नये व्‍यूह में
कहां मिलेगा अस्तित्‍व का धरातल
अन्‍जान है इससे फिर भी
डाल वो कवच संघर्षो का 
उतर पडती है अनुभूति की गहराई में 
यथार्थ की तपन में झुलसने लगा कवच 
धुटकर कर रह जाती है वो आवाज 
उस गुबार में 
जिसमें धिरा  उलझा  जूझता 

हर व्‍यक्तित्‍व तलाशता है निज अस्तित्‍व।

Saturday, October 26, 2013

पैबंद

कब तलग जोड़ते, 
सहेजते रहोगे
वो पैबंद, जो लगाये थे तुमनें
मेरी जिन्‍दगी में प्‍यार के नाम पर ।
तुम जीते रहे जिन्‍दगी,
कैद मैं चंद दीवारों में
अतीत के साये में
रूप पैबंद को देती रही तुम्‍हारे अनुरूप ।

तुमने सम्‍बन्‍धों के एहसास
जीए जिन्‍दगी के नाम पर
तुम मेरे हो, इस एहसास में
स्‍वंय से क्‍या है, 
मेरा सम्‍बन्‍ध जी ना सकी मैं
बात सिर्फ एक दशक की नहीं
लम्‍हा लम्‍हा जोड़ते पैबंद का दर्द
जीया है मैंने प्‍यार के नाम पर ।

Thursday, October 24, 2013

रेखा

जिन्‍दगी की किताब के
पृष्‍ठ बदलते रहे
उन पर अंकित
गहरी काली रेखाएँ
कुछ अमिट
तनिक सिमट कहती रही
कहानी जिन्‍दगी की।
सुना तो था
या
किया अनसुना याद नहीं
हाँ
एक एहसास कहानी पूरी होने का
रेखाओं में सिमट
छूने लगा संवेदना के तार
गहराने लगी रेखाऍं
किस्‍मत की स्‍याही से
पृष्‍ठ भरने को थे
तभी
रेखाएँ भ्रम दे कालिमा का
कहने लगी
अधूरे कोरे पृष्‍ठों के सहारे भी
किताबे पूरी हुआ करती है 
रेखाओं के अंकित होने तक । 

.साथी

जिन्‍दगी करती है सवाल मुझसे
क्‍या है गम
और
है क्‍या खुशी ?
अतल सागर में
तलाशता है क्‍यों कोई निधि
प्रश्‍न लहरो से उठते हैं निगाहों में
छू कर किनारा
कभी शांत श्‍वेत मेघ से
लौट जाते हैं
और
कभी तोड़ डालना चाहते हैं किनारा ।
कठोर वक्‍त बन,
सोचती हूँ उत्तर दूँ या नहीं
खुशी और गम की
कोई सीमा नहीं
हर बदलते क्षण में
ये बंध जाते हैं
प्रश्‍न करने से पूर्व
और
उत्तर की प्रतीक्षा में
संवेदना के ये साथी
रंग बदल जाते हैं।



25 04 90

Wednesday, October 23, 2013

अधूरे सपने

1
 अपने संग
 सहेजती मैं रंग
 तितली बन।
2
 टूटे सपने
 रूठ गए अपने
 बने पराये ।
3
खोजती पंख
छू लेती आसमान
 मेरी उड़ान ।
4
 खोये शब्‍द
ना लिखा गया पूरा
गीत अधूरा।
 
5
माँ का सपना
बने घर अपना
जोड़े सामान ।
6
 मैं हूँ खोजती
खो गए सभी मोती
माला पिरोती ।
7
करो स्‍वीकार
सपने हों साकार
ये एतबार।
8        
खिले गुलाब
न। हों संग ये काँटे
दर्द मिटा दे।
9
मेरी तन्‍हाई
कभी लेगी बिदाई
रात,ना आई।
10
ये सुख -भ्रांति
दुख देता अशांति
खोजते शांति ।
-0-

 ।

Sunday, October 20, 2013

इंतजार


1
तपते दिन
और बेचैन रातें
तन्हा सफर ।
2
थमें या बहें
पलकों पर रुके  
अश्क ये कहें ।
3
टूटे ये तार
हैं जख्मी अख्तियार
सोखते रस ।
4
तन्हा  राह में
टिमटिमता दीया 
करे सवाल ।
5
समय -सीमा
टिकटिक करती
न करे प्रश्न ।
6
रगों का लहू
दिल की धड़कन
 ये सरगम ।   
7
घिरी तन्हाई            
खामोशी पथराई
जड़ हो गए।
8
टूटी टहनी
बिखर गए पात
कहें  कहानी । 


Friday, October 18, 2013

सुख दुख

   1
है मिला, सब
दुख उसका भी है
अभिन्‍न साथी ।
   2
दुख सुख हैं
भाव अनुभूतियॉं
अर्थ अनेक ।
     3
सुख दुख की
सलीब पे अटका
देखो इंसान ।
   4 
सुख की शर्त
लगी, दुख गर्भ में
क्‍या खोया पाया ।
   5
भौतिकता
अजब कसौटी है
सुख दुख की ।
   6
सुख के पंख
उड़ सकें अनन्‍त
मात्र कल्‍पना ।
   7
खोजता सुख
हाथ लगे है दुख
यात्रा अनंत ।
    8
खोया जो,मिला
जीवन चक्र चला
चलते चलो ।
   9
जीवन लीला
दिन के बाद रात
फिर सवेरा ।
  10
मिला जीवन 
नव ओस बूंद सा 
क्षण भंगुर ।
10 11 2011  

बदलता रिश्‍ता

        1
अंकुरित सा
खिलता कोंपल सा
जीवन गीत ।
      2
पहला प्‍यार
बहार बन आया
खिला चमन ।
     3
मुलाकातो का
अंतहीन हो दौर
प्‍यार की डोर ।
     4
शब्‍दों से दूर
जिन्‍दगी की डोर सा
रिश्‍ता अनूठा ।
    5
मजबूरियॉं
गीत बनती गई
मंजिल जुदा ।
   6
बदलते हैं
अस्तित्‍व के रूप
वक्‍त के नाम ।
  7
रिश्‍ता बना है
अलिखा कोई गीत
बजता बेधुन । 
   8
मेरी तन्‍हाई
मुझे रास है आई
कैसी दुहाई ।
   9
खूबसूरत
फोटोफ्रेम जोड़ा है
कुछ अधूरा।
   10
रिश्‍ता अटूट
बिखरा कुछ ऐसे

असंख्‍य टुकड़े।
20.10.2011

पवन

1
बेपरवाह
हँसी-सी,ये फिसली
ओर ना छोर ।
2
कहे पवन
छू तन और मन
मेरा गगन ।
3
पवन बिन
इंसान, जल बिन
मीन समान।
4
जीवन डोर
बंधी है तेरे संग
अनूठा रंग।
5
आंख मिचौली
खेले ये दिन रात
 बनाये बात।
6
मेरी तन्‍हाई
बेदर्द पुरूवाई
करें हैं शोर ।
7
भयी वसन्‍ती
मदमस्‍त पवन
आया सावन। 
8
यूं है चलती
ये चपल चंचला
नव यौवना ।
9
मेरी सहेली
तेरे संग रंगीला
हर मौसम ।
10
चूम लेती ये
धरती या आकाश
एक ही साथ।

Wednesday, October 16, 2013

प्रयास


मैं कोई गुजारा लम्‍हा नहीं
जिसे भुलाने की कोशिश हो
मैं इक सच हूँ
मैं इक यथार्थ हूँ
कोई सपना नहीं
जो सुबह हो धुँधला जाऊँ
सच जीया जाता है
यथार्थ से जूझना पड़ता है
इंसान हो
खुद ही जान जाओगे
दर्द कहा नहीं जाता
सहा जाता है
जिन्‍दगी बहुत रंगीन ना सही
रंगहीन ही सही,
उसमें वक्‍त के बेरहम रंग ही सही
उसे संघर्ष के कैन्‍वस पर उतार
इक रूप तो दिया जा सकता है।
सीमा स्‍मृति

13.12.12

एतबार

क्‍यों,कलम हाथ आते ही
खो जाते हैं शब्‍द
उन साथियों की तरह
जो खो गए मात्र
अपनत्‍व का दे एहसास।
क्‍यों, अभिव्‍यक्ति की छटपटाहट
गुजरे स्‍वपन की तरह
थमा
खण्डित,उम्‍मीद का खिलौना
लौट जाती है ।
क्‍यों,कोरे कागज पर
जिन्‍दगी को अंकित करने
की चाह दिखा,
भय,तूफान का
जिन्‍दगी पे एतबार की
हर कड़ी तोडना चाहती है।
फिर भी, मैं
खोजती हूँ वो साथी
जोडती हूँ,
उम्‍मीद का खण्डित वो खिलौना 
और 
करना चाहती हूँ 
एतबार जिन्‍दगी पे।

बच्‍चों के मुख से

 बच्‍चों को छबीस जनवरी दिखाने का प्रोग्राम बनाया गया । भईया ने कार निकाली और हम अपने घर से  निकल कर अभी  हम  आई टी ओ के पुल पर पहुंचे ही थे कि मेरा भतीजा बोला कि ममा आज तो कमाल हो गया। आज तो कमाल ही हो गया। 
क्‍या हुआ सात्विक,ऐसा क्‍या हो गया ।
मम्‍मी आज हम इतनी दूर तक आ गये पर पापा ने कोई गाली नहीं दी।
मै और भाभी हैरान हो, और एक दूसरे को देख कर मुस्‍करा रहे थे और भईया कुछ शर्मिदा से लगे। बात दरसल यह थी कि भईया को ड्राइविंग करते वक्‍त अकसर बहुत गाली देने की आदत थी । यदि कोई साथ चलने वाला,गलत डाईव कर रहा होता तो, अक्‍सर गाली दे कहते उल्‍लू के पटठे  देखकर  गाडी चला या कोई और गाली भरा विशेषण लगा देते थे। वो दिन और आज का दिन  है,भईया ने गली देना छोड दिया है। हम आज तक सात्विक की इस बात को याद कर हंसते रहते हैं।

                                                                                                  सीमास्‍मृति

फ़ासले

कुछ यथार्थ तुम्‍हारे हैं
कुछ यथार्थ मेरे
फिर  कुछ हैं ----
हमारे यथार्थ में ।
तुम चलते रेगिस्‍तान में
मेरे कदम सागर की रेत पर
मिट गए कदमों के निशान
सफर अब भी हैं, अंतहीन
तुम खामोश
शब्‍द मेरे भी हैं लापता
फिर कितनी खामोश बातें करते हम-तुम
दर्द तुम्‍हारे सीने में,
टीसते हैं मेरे भी कितने ख्‍वाब
हम दरिया के दो किनारे ही सही
अस्तित्व के धरातल पर
क्‍या ये यथार्थ कम है
चलते चले जाने को ।


सीमा स्‍मृति

Friday, October 11, 2013

रहस्‍य



हर क्षण होठों पर सिमटी
मुस्कराहट के पीछे
क्या आपने देखी है-
बनावट की मोटी परत
 क्या महसूस की है, चुभती कड़वाहट
दर्द की एक सिहरन
झड़ती पपडि़याँ ईर्ष्या की
क्या पढ़ पा हैं आप
दबे इक डर में
सोखती जीवन की महक को
जरा सुनि
मुस्कराहट -भरे शब्ब्दों में
बेसुध  अहं की गूँज ।
देखना चाहते हैं
जानना चाहते हैं
इस मुस्कराहट  के रहस्य को
ले आइये आईना
और
सुनिये, क्या कहता है
खुदा होने का दावा करता इंसान
भूल इंसानियत की राह
अहम् के गुबार में लिप्त
बेपरवाह! बेखबरबेरहम!
देख जिसे आईना  भी मुस्कराता है
और
चटक कर बिखर जाता है।

सहज साहित्‍य पर  दिनांक १०.१०.२०१३ को  प्रकाशित मेरी कविता

Wednesday, October 9, 2013

ऐसा भी होता है

 ऐसा भी होता है

निशा, क्‍या बात है, आरती अपना स्‍कूटर रोक कर क्‍या कह रही थी ?

अरे यार कुछ नहीं बस ये कि वो मुझे घर छोड़ देगी उस का घर मेरे घर के पास ही है।

फिर तुम गई क्‍यों नहीं ?

अरे यार एक बार गई थी, थोडी दूर तक जाने के बाद लगा कि सब लोग ऐसे देख रहे थे कि जैसे मैं और वो अजूबा हैं। 
उसका ये स्‍कूटर दोनों साइड के एक्‍सट्ररा पहियों के कारण देखते ही एहसास करवा देता हैं कि वो विकलांग है।

तो क्‍या हुआ?

नहीं यार लोग ऐसे घूर रहे थे जैसे मै भी------------मुझे तो बहुत शर्म आ रही थी। मैं तो उस के साथ कभी नहीं घर जा सकती। मैने तो आरती को बोल भी दिया है।

छः महीने बाद:

क्‍या हुआ निशा इतना गुस्‍से में क्‍यों लग रही हो ?
क्‍या बताऊ जब से आरती ने अपनी डिसेबिलटी के अनुसार एडजस्‍ट करवा कर नयी आटोमेटिक कार ली , इतनी धमंडी हो गई है कि आज मैने कहा कि तुम अगर घर जा रही तो मुझे छोड़ देनां । उसने साफ मना कर दिया कि वो घर नहीं जा रही है । जब से आरती कार में आने लगी है तो जाने खुद को क्‍या समझने लगी है । जमीन पर तो जैसे पांव ही नहीं हैं।शर्म भी नहीं आई कैसे साफ मना कर दिया, दोस्‍तो को कोई ऐसे भी मना करता है!!